मैकाल सोम वंश और सिरपुर बाण वंश (पांडू वंश) : पिछले भाग छत्तीसगढ़ में शरभपुरीय (अमरार्य) वंश में हमने छत्तीसगढ़ के शरभपुरीय (अमरार्य ) वंश के बारे में पढ़ा । जिसमें की जानकारी प्राप्त की, इसी को आगे बढ़ाते हुए हम आज यहाँ छत्तीसगढ़ के अन्य क्षेत्रीय राजवंश के बारे में पढेंगे ।
मैकाल सोम वंश और सिरपुर बाण वंश (पांडू वंश)
छत्तीसगढ़ के सोम वंश ( Som Vansh )
मैकाल के सोम वंश – ( Maikal Som Vansh )
मैकाल के सोम वंश पान्डु वंश की एक शाखा थी, इनकी राजधानी अमरकंटक थी । इस वंश के प्रमुख शासकों में वत्सबल ( उददयन ), नागबल, सुरबल, भरतबल एवं जयबल । सूरबल के बारे में जानकारी मल्हार ताम्रपत्र अभिलेख से प्राप्त हुई है ।
सोम वंश (पान्डू वंश ) – ( Pandu Vansh ) 6 वीं – 8 वीं शताब्दी
राजधानी – सिरपुर
दक्षिण कोसल के बड़े क्षेत्र में पान्डु वंश ने अपनी सत्ता स्थापित की इन्होने सिरपुर को केंद्र मानकर शासन किया। ये स्वयं को सोमवंशी पांडव भी कहते है । इस वंश के आदि पुरुष का उल्लेख वत्सबल ( उददयन ) के नाम से है ।
इसका उल्लेख कालिंजर अभिलेख (उ.प्र.) से प्राप्त होता है । इसके साथ ही भवदेव रणकेसरी के भंदक शिलालेख से प्राप्त होती है ।
पान्डु वंश का प्रथम शासक तथा दक्षिण कोसल में पान्डु वंश का संस्थापक “इंद्रबल” को माना जाता है, जिन्होंने छत्तीसगढ़ से शरभपुरीय वंश को समाप्त कर पान्डु वंश की नीवं रखी ।
छत्तीसगढ़ में इस वंश की दो शाखायें थी
1) मैकाल श्रेणी अमरकंटक में स्थित “सोम वंश” हो इनकी मुल शाखा थी ।
2) सिरपुर सोम वंश ( पान्डु वंश ) का दक्षिण कोसल में शासन ।
इंद्रबल का नाम अन्य अभिलेखों में “भरतबल” भी प्राप्त होता है । इंद्रबल के दो पुत्र थे – इसानदेव एवं भवदेव रणकेसरी ।
इसानदेव: इसानदेव को इंद्रबल ने खरौद का “मंडलाधिपति” बनाया, इसानदेव ने खरौद में लक्ष्मनेश्वर मन्दिर बनाया जो मूलतः शिव मन्दिर है ।
भवदेव रणकेसरी: इंद्रबल ने भवदेव को भाण्डेर ( आरंग ) का “मंडलाधिपति” बनाया, इसके सम्बन्ध में जानकारी भवदेव के भंदक शिलालेख से होती है ।
इंद्रबल ने अपने भाई “ननराज ” को सिरपुर का शासन क्षेत्र सौंपा था ।
प्रमुख शासक
1. इंद्रबल या भरत बल: इंद्रबल शरभपुरीय शासक सुदेवराज के यहाँ सामंत के रूप में कार्य करते थे एवं सुदेवराज के पुत्र प्रर्वरराज IIवर्र्ज की हत्या कर पान्डु वंश की नीवं रखी । इन्होने खरौद नगर को बसाया था और इन्होने अंतिम समय अपने साम्राज्य का विभाजन किया ।
2. ननराज I: इंद्रबल के बाद सिरपुर का शासक बना।
3. महाशिव तीवरदेव : ये ननराज I के पुत्र थे एवं इस वंश के प्रतापी शासक थे । इनके ताम्रपत्रों में इनका उल्लेख महाशिव तीवरदेव नाम से होता है एवं इनकी मुद्राओं में तीवरदेव अंकित है ।
महाशिव तीवरदेव की उपाधियों में — महाशिव, परमवैष्णव, पंचमहाशप्त कल्ह्ग की राजतरंगी में प्राप्त होता है । इसके अतिरिक्त राजाधिराज, अधिराज एवं उत्कल कोसल को जीतकर सकल कोसलाधिपति कहलायें ।
इनकी मुद्रा में गरुड़ का अंकन है, इस शासक की जानकारी राजिम, बालोद एवं रायगढ़ ताम्रपत्र अभिलेख से प्राप्त होती है, ये वैष्णव धर्म के अनुयायी थे ।
4. ननराज II : ननराज II महाशिव तीवरदेव का पुत्र था , इसका एक ताम्रपत्र ( अठ्मार ) सक्ती ( रायगढ़) से प्राप्त हुआ । इन्होने नागपुर के वर्धा क्षेत्र को जीता तथा उत्कल क्षेत्र को राजा माधव वर्मन से पराजित हो गए । इन्होने कोसलमंडलाधिपति एवं महाननराज की उपाधि धारण की ।
5. चन्द्रगुप्त : चन्द्रगुप्त महाशिव तीवरदेव के भाई थे, इन्होने राजा माधव वर्मन को पराजित कर उत्कल को जीता और उसे पुनः बसा कर शासन किया ।
6. हर्षगुप्त : सिरपुर लेख के अनुसार चन्द्रगुप्त का पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुआ । हर्षगुप्त का विवाह “मौखरी वंश” की राजकुमारी “वासटा देवी” से हुआ , वासटा देवी मौखरी वंश के सूर्यवर्मन की पुत्री थी ।हर्षगुप्त के दो पुत्र थे 1. महाशिवगुप्त बालार्जुन 2. रणकेसरी ।
वासटा देवी ने अपने पति हर्षगुप्त की स्मृति में सिरपुर में लाल इंटों से नागर शैली में लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण प्रारंभ करवाया , ये मूलतः विष्णु मन्दिर है । इस मन्दिर को पूर्ण कराने में ईसानदेव ने सहायता की । यह मन्दिर गुप्त कालीन का श्रेष्ठ उदाहरण है ।
हर्षगुप्त ने त्रिकलिंगाधिपति एवं प्राकपरमेश्वर की उपाधि धारण की, इनका उल्लेख नेपाल के शासक जयदेव के शिलालेख में मिलता है ।
7. महाशिवगुप्त बालार्जुन (595 ई.-655 ई.): महाशिवगुप्त के शासनकाल को “छत्तीसगढ़ का स्वर्णकाल” कहा जाता है, इन्होने 60 वर्षों तक शासन किया ।
इसकी जानकारी सिरपुर से प्राप्त 27 ताम्रपत्र अभिलेख से होती है। इन ताम्रपत्रों का अध्ययन सर्वप्रथम “रमेन्द्र नाथ मिश्र एवं विष्णु सिंह ठाकुर” ने किया था ।
महाशिवगुप्त को बाल्यकाल में धनुर्विद्या में निपुण होने के कारण बालार्जुन कहा गया । इन्हें सहिष्णु भी कहा जाता है ।
इन्होने शैव धर्म को अपनाया और महेश्वर की उपाधि धारण की, बाद में अपने मामा से प्रभावित होकर इन्होने बौद्ध धर्म अपनाया एवं अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण कराया, इसके साथ ही इन्होने जैन धर्म के अनुयायी को संरक्षण भी दिया ।
महाशिवगुप्त के शासनकाल में सन 639 ई. में चीनी यात्री ” ह्वेनसांग ” ने छत्तीसगढ़ का भ्रमण किया ।
” ह्वेनसांग ” ने अपनी सी.यु.की.( यात्रा का वृतांत ) में छत्तीसगढ़ का नाम “किया स. लो ” से इल्लेखित किया ।महाशिवगुप्त ने कवी इशान को संरक्षण दिया था ।
समकालीन राजा – 1.हर्ष वर्धन 2. पुल्केशियन II
पुल्केशियन II के दरबारी कवि “रविकिर्ती” के ऐहॉल प्रशस्ति अभिलेख में पुल्केशियन II के द्वारा महाशिवगुप्त को पराजित करने का उल्लेख है ।
नोट:
पान्डु वंश के अंतिम शासकों को “पाली” के “बाणवंशी” शासक विक्रमादित्य ने पराजित किया एवं बिलासपुर क्षेत्र को समाप्त करने का प्रयास किया ।
जबकि पान्डु वंश को पूर्ण रूप से समाप्त करने का श्रेय “नलवंशी” शासक विलासतुंग को जाता है ।
महारानी वासटा देवी के द्वारा जो लक्ष्मण मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारंभ किया गया था उसे महाशिवगुप्त के द्वारा पूर्ण कराया गया था ।
प्रमुखअभिलेख
कालिंजर अभिलेख – वत्सबल ( उददयन ) एवं राजधानी सिरपुर का उल्लेख
भंदक शिलालेख अभिलेख – भवदेव एवं रणकेसरी का उल्लेख
राजिम, बालोद एवं पौडा ( रायगढ़ ) ताम्रपत्र अभिलेख – महाशिव तीवरदेव का उल्लेख
अठ्मार ताम्रपत्र अभिलेख (सक्ति ) – ननराज II का उल्लेख
सिरपुर अभिलेख – हर्षगुप्त का उल्लेख
ऐहॉल प्रशस्ति अभिलेख , 27 ताम्रपत्र अभिलेख – महाशिवगुप्त बालार्जुन का उल्लेख
बाण वंश – ( Baan Vansh )- 9 वीं शताब्दी
संस्थापक – महामंडलेश्वर मलदेव
राजधानी – पाली
प्रमुख शासक
विक्रमादित्य – इन्होने पान्डु वंशीय अंतिम शासक को पराजित किया और पाली के शिव मन्दिर का निर्माण कराया ( पाली के शिव मन्दिर का जीर्णोंधार कलचुरी शासक “जाजल्यदेव I ने किया था ) ।
नोट : विक्रमादित्य को कल्चुरी के त्रिपुरी शाखा के शासक शंकरगढ़ ने पराजित किया एवं इस वंश को समाप्त कर दिया ।