ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक या एक परिवार के लोग एक साथ मिलकर निवास करते थे, जिसे कुल या गृह कहा जाता था जिसका प्रमुख कुलय होता था ।
ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार की अवधारणा प्रचलित थी, पुत्र का जन्म हर्ष का विषय होता था, जबकि कन्या का जन्म न तो हर्ष का विषय होता था ना ही दुःख का ।
विवाह
इस काल में विवाह को एक पवित्र संस्कार माना गया । ऋग्वैदिक काल में अंतर्जातीय विवाह की मान्यता थी, सामान्यतः डॉ प्रकार के विवाह प्रचलित थे : –
1. अनुलोम विवाह – उच्च वर्ग के पुरुष और निम्न वर्ग की महिला ।
2. प्रतिलोम विवाह – उच्च वर्ग की महिला और निम्न वर्ग का पुरुष ।
ऋग्वैदिक काल में नियोग प्रथा, विधवा विवाह, बहुपति विवाह आदि प्रचलित था, किन्तु बाल विवाह का उल्लेख नहीं मिलता है ।
महिलाओं की स्थिति (दशा)
यद्यपि ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था किन्तु स्त्रियों की सामजिक दशा बहुत अच्छी थी, स्त्रियों की अच्छी दशा का संकेत उनके उपनयन संस्कार एवं शिक्षा प्राप्त करने की प्रथा से ज्ञात होता है ।
इस काल की कुछ प्रमुख विदुषी महिलाओं का उल्लेख मिलता है जिन्होंने ऋग्वेद में अनेक मंत्रो की रचना की है जो निम्नानुसार है : –
1 लोपामुद्रा, 2. घोषा, 3. अपाला, 4. सिकता, 5. विश्ववारा इत्यादि थे ।
पत्नी अपने पति के साथ धार्मिक अनुष्ठान एवं राज में भाग लेती थी । स्त्रियों को राजनितिक संस्था में प्रवेश का अधिकार था, वे सभा तथा विदथ में भी भाग लेती थी ।
स्त्रियों को पुनर्विवाह, बहुपति विवाह, विधवा विवाह, नियोग प्रथा आदि का अधिकार था । आधुनिक काल की अनेक कुरीतियाँ जैसे दहेज़ प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा आदि का उल्लेख नहीं मिलता ।
महिलाओं को जीवनभर अविवाहित रहने का भी अधिकार था, जीवनभर अविवाहित रहने वाली महिलाओं को “अमाजू” कहा जाता था ।
वैदिक (ऋग्वेद) काल – सामजिक जीवन
वर्ण व्यवस्था
ऋग्वेद में वर्ण का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है 1. वरण करना या चुनना और 2. रंग ।
ऋग्वेद के 10 वें मण्डल पुरुषसूक्त में वर्ण शब्द का पहली बार उल्लेख किया गया है, इसमें कहा गया है कि परमपुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य एवं पैरों से शुद्र उत्पन्न हुए है ।
परन्तु ऋग्वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था जन्म पर आधारित न होकर कर्म पर आधारित थी । ऋग्वेद के एक मण्डल में “अंगिरस” कहता है कि मै एक कवि हूँ और मेरे पिता एक वैध्य है, और मेरी माता आटा पिसने वाली है।” इस तरह हम अलग अलग कार्य करते हुए भी हम साथ साथ रहते है ।
इस प्रकार से वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म था ।
वर्ण शब्द का दूसरा प्रयोग रंग के लिए होता था, आर्य श्वेत वर्ण के थे, और आर्य यहाँ के मूलनिवासी जो की काले रंग के थे उन्हें दास , दस्यु, म्लेच्छ कहकर पुकारते थे ।
आर्य द्वारा जीते गए दास एवं दस्यु ही शुद्र कहलाये ।
दास प्रथा
ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा प्रचलित थी स्त्री एवं पुरुष दासों का उल्लेख मिलता है, पुरोहितों को दक्षिणा में दास या दासियाँ देने का उल्लेख मिलता है । दासो से केवल गृह कार्य करवाया जाता था, उनसे खेती या उत्पादन सम्बन्धी कार्य नहीं करवाया जाता था ।